एज़ाज़ क़मर, डिप्टी एडिटर-ICN
नई दिल्ली: सैय्यद वल शरीफ़ कमालुद्दीन बिन मुहम्मद बिन यूसुफ़ अल हुसैनी का उर्स कर्नाटक के गुलबर्गा शरीफ मे 7 दिसंबर 2020 से 9 दिसंबर 2020 के बीच श्रद्धापूर्वक और धूमधाम से मनाया जा कहा है,आप दक्षिण भारत के सबसे बड़े मुस्लिम सूफी संत माने जाते है,बड़ी संख्या मे निसंतान जोड़े आपकी यहां मन्नत मांगनेआते है और लगभग सभी श्रद्धालु निराश नही होते है।
भगवान है या नही? यह हमेशा बहस का विषय रहा है,हालांकि भगवान के होने या नही होने से राजनीतिक-कूटनीतिक गतिविधियो पर कोई असर नही पड़ता है,किंतु इस समय विश्व की सबसे बड़ी बीमारी अवसाद (Depression) को नियंत्रण करने मे श्रद्धा-विश्वास की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप मे अंधविश्वास का प्रचार करना आई०सी०एन० मीडिया के प्रोटोकॉल के विरुद्ध है वरना सूफी संतो के चमत्कारो से किताबे भरी पड़ी है,किंतु जब अध्यात्मिक विषयो पर बातचीत होती है अथवा चिंतन-मंथन होता है तो सांकेतिक रूप मे चमत्कारो की चर्चा होती ही है,क्योकि अगर श्रद्धा को विज्ञान की कसौटी पर रखा जाये तो सारे पंथो का अंत हो सकता है,फिर मनुष्य के सिर पर नाचता नास्तिकवाद सांस्कृतिक मूल्यो का पतन कर देगा।
जबकि नित नई आकाशगंगा खोजने वाले वैज्ञानिक अभी तक इस ब्रह्मांड के ग्रहो की गणना तक नही कर पाये हो तो ऐसी स्थिति मे इस अपूर्ण विज्ञान के आधार पर धर्म पर निशाना साधना सिर्फ कुतर्क ही माना जायेगा,इसलिये शास्त्रार्थ के अवसर यह भी ध्यान रखना चाहिये कि आधुनिक विज्ञान चंद शताब्दी पुराना है और जैसे-जैसे विज्ञान की यात्रा आगे बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे कुरान के कथन अपने आप सत्यापित होते जा रहे है तथा बड़े-बड़े वैज्ञानिक धर्मातरित होकर मुसलमान बनते जा रहे है।
इस्लाम को मात्र चौदह सौ वर्ष पुराना समझ लेना अज्ञानता का सबसे बड़ा प्रमाण है, क्योकि इस्लाम की शुरुआत प्रथम मनुष्य आदम (Adam) से होती है जिनका अवतरण भारत मे ही हुआ था अर्थात “भारत इस्लाम की जन्मभूमि है”,इसलिये सनातन धर्म से लेकर ईसाइयत तक जितने भी पंथ हुये है और जो यह विश्वास करते है कि ब्रह्मांड की रचयिता कोई एक शक्ति (आदिशक्ति) है तो वह इस्लामिक इतिहास का अंग है।
“कपिल के सांख्य सिद्धांत” तथा “महर्षि चर्वाक के शून्यवाद” जैसे दर्शनो पर आधारित नास्तिक पंथ भी इस्लामिक इतिहास का ही अंग है, -+क्योकि वह मोक्ष के नाम पर बाहर के बजाय अपने शरीर के अंदर ही उस आदिशक्ति (परमेश्वर) को खोजते रहते है।चूँकि “वहदत-उल-वजूद” (प्रत्येक अणु मे परमात्मा विराजमान है) के “दर्शन” के अंतर्गत सूफीवाद की अवधारणा (Sufi Cosmology) मे परमात्मा अर्थात परमशक्ति को हम सात जहानो (ब्रह्मांडो) पर ढूंढते रहते है और सातवां आसमान हमारे सर (मस्तिष्क) के अंदर ही माना जाता है,इसलिये यह मोक्षवादी पंथ भी इस्लामिक विचार-सरिता से निकली धारा ही है,हालांकि बाकी छह जहानो (हाहूत, याहूत, लाहूत, जबरूत, मलाकूत तथा नासूत) तक पहुंचने के लिये यह समुदाय प्रयत्नशील नही होते है।क्योकि मुद्दा “जहान” (Realms) का है तो उसमे प्रवेश करने के लिये कोई ना कोई “दरवाज़ा’ (द्वार) तो होना ही चाहिये इसलिये सारे पंथ शरीर मे मौजूद अध्यात्मिक भवन के अंदर घुसने के लिये दरवाजे़ खोजते रहते है,यद्यपि अब इसे कल्पना की उड़ान कहा जाये या दिमाग का वहम अथवा मनोरोग,फिर भी हिप्नोटिज्म से लेकर टैलीपथी तक का अभ्यास सैकड़ो सालो से होता चला रहा है जबकि उस समय मनुष्य गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को भी नही जानता था।
विश्व गुरु भारत मे कुंडली जागरण के नाम पर शरीर के अंदर सात द्वार तथा आठवां शरीर से बाहर खोजने की परंपरा है और दरवाज़ा ढूंढने मे मदद करवाने वाले कुछ गुरू इनकी संख्या बढ़ाकर दस से बारह भी कर देते है,जबकि इस्लामिक सूफीवाद मे इस द्वार को “लतीफा’ कहा जाता है और सनातन के सात (7) द्वारो को मात्र दो द्वारो मे ही सीमित कर दिया जाता है,
मूलाधार को “लतीफा नफ्स” कहा जाता है और तीसरी आंख वाले स्थान को “लतीफा अना” कहा जाता है बाकी पाँच (5) दरवाजे़ / लतीफे (क़ल्ब, सिर्री, इख़फा, खफी, रूह) सीने मे होते है,हालांकि कुछ पंथी (Cult) तथा पीर (गुरू) इन लतीफो की संख्या 10-12 तक बताते रहते है।
हर लतीफे का अलग-अलग रंग होता है और सबसे महत्वपूर्ण “लतीफा क़ल्ब” अर्थात दिल को माना जाता है जिसका रंग “लाल” होता है और इसी दरवाजे़ (द्वार) से ही सूफीवाद की महल मे प्रवेश मिलता है, किंतु सातवां ब्रह्मांड मस्तिष्क मे ही माना जाता है और चूँकि हमारे आसमान का रंग नीला है इसलिये “लतीफा अना” का रंग भी नीला माना जाता है,क्योकि “ज़िक्र” (नाम) तथा “मुराग़बा” (ध्यान) इस दरवाजे़ की चाबी होती है इसलिये नीले रंग के प्रकाश मे बैठकर और नीले रंग के प्रकाश-पुंज (कल्पना) पर ध्यान लगाकर दरवाज़ा खोलने का प्रयास किया जाता है।
मस्तिष्क के बीचो-बीच का स्थान जो तीसरी आंख के समानांतर है वह इस ध्यान का केंद्र होता है,जब नीले रंग से बदलकर कोई दूसरे रंग का प्रकाश दिखाई देने लगता है तो वह दरवाजा खुला हुआ माना जाता है,फिर इसके तीसरे तथा आखिरी पर्दे के पीछे जो प्रकाश होता है उसे ही “नूर का दीदार” (ब्रह्मदर्शन) अथवा सातवां जहान कहा जाता है।
अब सातवां आसमान मिले या ना मिले अथवा ब्रह्म दर्शन हो या ना हो?
चूँकि जीव विज्ञान की भाषा मे इस स्थान को पीनियल ग्रन्थि (pineal gland) कहा जाता है,इसलिये मस्तिष्क के दोनो हिस्सो मे बराबर रक्त संचार होने से पीनियल ग्रंथि सक्रिय हो जाती है और जिसके कारण मस्तिष्क की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है,दूसरे डॉक्टरो द्वारा सतरंगी लाइट थेरेपी का इस्तेमाल कई रोगो मे किया जाता है,तीसरे प्रोफेशनल गुरू रेकी सिखाने और रेकी से उपचार करने के नाम पर छात्रो तथा मरीज़ो से मोटी रकम वसूलते है।
मै सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विषयो का लेखक हूं और मुझे धार्मिक विषय पर लेख लिखना कतई पसंद नही है, इसलिये ना तो मेरे इस लेख का उद्देश्य धार्मिक/अध्यात्मिक ज्ञान बखेरना है और ना ही मै पाठको की आत्मा के द्वार खोलकर उन्हे ब्रह्म (नूर) के दर्शन करने का अभ्यास करवाना चाहता हूं,किंतु मेरे इस लेख का विषय सूफी परंपरा के संतो के द्वारा किये गये परोपकार के कार्यो के बारे मे संक्षिप्त जानकारी देना है, जिन्होने भारत भूमि पर समग्र-संस्कृति अर्थात “गंगा-जमुनी तहज़ीब” का पौधा लगाया था,ईरान निवासी ख़्वाजा हज़रत मोइनुद्दीन चिश्ती को आकाशवाणी और सपने के द्वारा संदेश दिया गया,कि वह उस पुण्यभूमि हिंदुस्तान की धरती पर जाये जहां पर पहले पैगंबर हज़रत आदम उतरे थे और जहाँ पैगंबर हज़रत नूह की क़ौम के वंशज रहते है तथा उनको इस्लाम की रोशनी से रोशन करे,क्योकि हज़रत नूह की कौम शिर्क (बहुश्वेर-वाद) और आपस मे ऊंच-नीच का भेदभाव (वर्ण व्यवस्था) करती थी।
जब हज़रत ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अपने पूर्वज पैगंबरो की पावन धरती पर पधारे और अजमेर के स्थान पर एक डेरा लगाने का प्रयास किया,तो पृथ्वीराज चौहान के सिपाहियो ने उन्हे वहां से हटाते हुये कहा कि यहां पर ऊँट बैठेगे,तब ख़्वाजा साहब ने कहा कि अगर यहां ऊँट बैठेंगे तो हम चले जाते और उसके बाद वहां ऊँट बैठ गये किंतु ऊँट वहां से उठ ना सके,फिर परेशान सिपाहियो ने ख़्वाजा साहब से माफी मांगी तब ऊँट उठकर खड़े हुये।
किंतु फिर कुछ समय के बाद राजा के सिपाहियो ने ख़्वाजा साहब और उनके शिष्यो का पानी बंद कर दिया तब ख़्वाजा साहब ने अपने शिष्य को भेजकर एक पानी के बर्तन मे आना-सागर से थोड़ा सा जल मंगवाया,तभी मुरीद के द्वारा बर्तन मे पानी भरते ही सारा आना-सागर सूख गया और शहर मे हाहाकार मच गया,फिर दोबारा राजा के सिपाहियो ने ख़्वाजा साहब से माफी मांगी और ख़्वाजा साहब ने अपने बर्तन का पानी वापस आना-सागर मे डलवाकर उसे (झील) दोबारा पानी से भर दिया।
पृथ्वी राज चौहान ने अपने जादूगर जगपाल को ख़्वाजा साहब के ऊपर आक्रमण करने की लिये भेजा,किंतु जब जादूगर जगपाल अपने चमत्कार दिखाते-दिखाते थक गया तो ख़्वाजा साहब ने अपनी खड़ाऊं को आदेश दिया और फिर खड़ाऊं उड़कर जगपाल के सिर पर ढोल की तरह बजने लगी,तो जगपाल ने माफी मांगी और वह मुसलमान बन गये फिर आगे चलकर वह मशहूर मुस्लिम सूफी-संत हज़रत अब्दुल्लाह कहलाये।
ख़्वाजा साहब के बाद उनके शिष्य हज़रत बख़्तियार काकी साहब ने अध्यात्मिक गद्दी संभाली और आप सुख-सुविधा त्यागकर चिश्ती परंपरा का पालन करतेे हुये सादगी और ग़रीबी मे जीवन व्यतीत करने लगे, फिर आपने सिर्फ पानी के साथ रोटी खाने की आदत बना ली,इसलिये आपकी पत्नी एक दुकानदार के यहां से रोटी बनाने के लिये आटा उधार लाती थी जो बहुत व्यंग करता था, किंतु एक दिन आपकी पत्नी ने दुकानदार के तानो (व्यंगो) से तंग आकर आटा नही खरीदा और जब बख़्तियार काकी साहब ने घर मे रोटी ना होने का कारण पूछा,तो उनकी पत्नी ने रोटी बनाने से इनकार करते हुये कहा कि अब मै कभी भी उधार के आटे से रोटी नही बनाऊंगी।
बख़्तियार काकी साहब ने अपने कमरे मे बनी तथा पर्दा पड़ी (ढकी हुई) एक ताक़ (Recess in a wall) मे हाथ डालकर ज़रूरत के मुताबिक उसमे से कुछ रोटियां निकालकर पत्नी को उपयोग करने के लिये दे दी,फिर रोज़ मेहमानो और भूखो को खिलाने के लिये ताक़ मे सेे हाथ डालकर रोटियां निकालने का सिलसिला चल पड़ा, किंतु एक दिन जब दुकानदार ने उनकी पत्नी से इतनी बड़ी मात्रा मे रोटियां प्राप्ति का कारण पूछा तो पत्नी ने यह रहस्य खोल दिया,तभी उसी दिन से ताक़ (दीवार मे बनी खुली-अलमारी) मे से रोटियां निकलना बंद हो गई।
ख़्वाजा साहब के आदेशानुसार उनके खानकाह मे एक दिन मे तीन बार लंगर होता था जिसकी ज़िम्मेदारी (इंचार्ज) “हज़रत बख़्तियार काकी” की ही थी,फिर आपकी सेवा से खुश होकर हज़रत ख़्वाजा साहब ने आपको “काकी” अर्थात “रोटी बनाने वाला” का तख़ल्लुस (उपनाम) दिया, क्योकि कभी भी लंगर मे रोटीयां कम नही पड़ती थी और जब भी गरम रोटी की ज़रूरत होती थी तब ठंडे पानी के बर्तन मे हाथ डालकर हज़रत बख़्तियार काकी गरम-गरम रोटियां निकालकर श्रद्धालुओ को भोजन (लंगर) देते थे।
आप के बाद आपके शिष्य “बाबा शेख गंजे शकर फरीद” साहब ने लंगर के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुये एक से बढ़कर एक चमत्कार दिखाये और एक बार जब आप बदायूं गये तो एक बालक (हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया) से आपकी मुलाकात हुई,आपने बालक से इच्छा पूछी तो बालक ने कहा कि मुझे सोना (स्वर्ण) चाहिये क्योकि सोने से सारी ज़रूरते पूरी हो सकती है,फिर बालक उनकी सेवा करता रहा और एक दिन उन्होने इस्तंजा (प्रक्षालन) के लिये बालक से मिट्टी मांगी।फिर गुरु को देने के लिये बालक (हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया) जिस मिट्टी के ढेले को छूते वह सोना (Gold) बन जाता था,जब मिट्टी खोजते-खोजते थक कर परेशान हो गये तब आपने अपने गुरु से कहा कि यहां मिट्टी नही मिल रही है क्योकि यहां तो सिर्फ़ सोना है और आप सोने से इस्तंजा (Ablution) नही कर सकते है,तब आपके गुरु ने कहा अगर सोना इस्तंजा के काम भी नही आ सकता तो फिर यह कठिन समय मे कैसे काम आयेगा?
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होने गुरु से क्षमा मांगी कि मै कितनी बेकार चीज़ के लिये अपना समय बरबाद (व्यर्थ) कर रहा था?
फिर वह गुरु के आदेशानुसार दिल्ली आ गये और बादशाह के अनुदान से दिन मे एक बार लंगर करना शुरू कर दिया,किंतु चाटुकार दरबारियो ने राजा को भड़काया कि आपके पैसे से लंगर करके निज़ामुद्दीन सुर्खियां तथा लोकप्रियता बटोर रहे है तो राजा ने चंदा बंद कर दिया,तब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने कहा कि आज से एक बार नही बल्कि तीन बार लंगर होगा और जीवन भर वह तीन बार लंगर करके गरीबो-आनाथो और परदेसियो को खाना खिलाते रहे।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय शिष्य हज़रत अमीर खुसरो ने उनसे निवेदन किया; “मै चाहता हूं कि आपके आशीर्वाद से मेरी कविता मे मिठास आ जाये”,तब हज़रत निज़ामुद्दीन ने उनसे शकर के कुछ दाने लाने को कहा और फिर वह दाने उनके शरीर के ऊपर डाल दिये,इसलिये आज इतिहास गवाह है कि अमीर खुसरो भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्रसिद्ध लोक-कवि है और यह घटना हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के चमत्कारो को ही सत्यापित कर रही है।
आप जब जल्दी-जल्दी रात-दिन काम करवाकर अपनी ख़ानकाह (आश्रम) का निर्माण करवा रहे थे,तो तेल की कमी के कारण चिराग़ जलना बंद हो गये और रात का काम रुक गया,तब निर्माण कार्य के ज़िम्मेदार (इंचार्ज) नसीरुद्दीन महमूद ने अपनी उंगली को जलाकर पूरे क्षेत्र को प्रकाशमय कर दिया, तभी से उनका नाम “चिराग़ दिल्ली” पड़ा और हजरत ख़्वाजा बंदा नवाज़ ‘चिराग़ दिल्ली’ के ही मुरीद थे और 15 वर्ष की आयु मे उनसे आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करना शुरू की थी।
जब आप दिल्ली मे रहकर बड़े-बड़े विद्वानो से शिक्षा अर्जित करतेे हुये अपने गुरू की सेवा कर रहे थे,तब एक दिन आपके बड़े-बड़े बाल गुरू की पालकी उठाते हुये लकड़ी मे फंस गये,किंतु आप असहनीय पीड़ा सहते हुये भी पालकी उठाकर आगे चलते रहे।
आपकी इस ख़िदमत और फरमाबरदारी को देखकर गुरू ने आशीर्वाद देते हुये आपको “गेसू दराज़” के तख़ल्लुस (उपनाम) से नवाज़ा,फिर गुरू कृपा से आप विद्वान और महान लेखक बन गये,हज़रत बंदा नवाज़ दक्षिणी-उर्दू अर्थात “दक्कनी भाषा” का उपयोग करने वाले प्रथम सूफी विद्वान थे और उर्दू के अलावा आपने अरबी तथा फारसी मे भी लेखन करते हुये लगभग दो सौ किताबे लिखी है जिनमे महान कृति “तफसीरे मल्लिकात” तथा पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (ﷺ) की जीवनी पर उर्दू-दक्कनी भाषा मे लिखी “मेराज उल-आशिक़ीन” नामक पुस्तक आज भी लोकप्रिय है और कई शताब्दियो के गुज़र जाने के बावजूद आपकी लिखी किताबो “क़सीदा अमाली” और “आदाब अल-मुरीदैन” की आज भी मांग होती है।
आपने महान विद्वान “इब्ने अरबी” तथा “सुहरावर्दी” के कार्यो पर कई ग्रंथ लिखे जिसने भविष्य मे शोध-अनुसंधान करने वाले विद्वानो-लेखको के कार्य को सरल-सुलभ बनाया और आपके साहित्य सृजन ने रहस्यवाद (मआरिफ़त) की व्याख्या करने तथा सूफीवाद का प्रचार-प्रसार करने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है,आप की अन्य महत्वपूर्ण पुस्तको मे “तफ़ासीर-ए-क़ुरान-ए-मजीद”, “मुल्तक़ीत”, “हवशी कश्फ़”, “शरह-ए-मशारेक़”, “शरह फिकह-ए-अकबर”, “शरह अदब-उल-मुरदीन”, “शरह तअर्रुफ़”, रिसाला (पत्रिका) – “सीरत-उन-नबी”, तरजुमा (अनुवाद) – “मशरेक़”, “मआरिफ़”, तरजुमा (अनुवाद) – “अवारिफ़”, “शरह फ़सूसुल हिकम”, “तरजुमा-रिसाला – क़शेर्या”, “हवा असाही कुव्वत-उल-क़ल्ब” है।
यद्यपि इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नही है फिर भी ऐसी मान्यता है कि आप कागज़ पर अपना लकड़ी से बना हुआ क़लम रखकर उसको (क़लम) सिर्फ आदेश देते थे,तो क़लम बिना किसी मनुष्य के हाथ लगाये ही स्वयं साहित्य सर्जन करता था।
हज़रत सैय्यद मुहम्मद अल-हुसैनी उर्फ गेसू दराज़ (बंदा नवाज़) का जन्म 7 अगस्त 1321 को दिल्ली मे हुआ था फिर लगभग 76 वर्ष की उम्र मे फिरोज़ शाह बहमानी द्वारा शासित दक्षिण भारत के एक राज्य मे चले गये और लंबे समय तक वहां धार्मिक प्रवचन-उपदेश तथा आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने का कार्य करतेे रहे,फिर हज़रत बंदा नवाज़ की 101 साल की उम्र मे कर्नाटक के गुलबर्गा मे दिनांक 10 नवंबर 1422 ईसवीं (16 ज़िलकादा 825 हिजरी) को वफ़ात हो गई और आज भी श्रद्धालु वहां पर आपके मकबरे की ज़ियारत करने जाते है।
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